प्रेम…शर्त और… इंद्र का जाल !!
।। उर्वशी अप्सरा और राजा पुरु की प्रेम- कहानी।।
ईश्वर की सबसे सुंदर रचना मनुष्य है। यह कहानी उस समय की है जब पृथ्वी पर मानव जीवन आरंभ ही हुआ था।
प्रतिष्ठानपुर नामक राज्य में इल नाम के एक प्रतापी राजा राज कर रहे थे।
राजा इल बड़े ही साहसी ओर पराक्रमी राजा थे।
एक बार एक स्थान पर कुछ समय के लिये देवी पार्वती ने भगवान शिव के साथ कुछ समय बिताया।
पार्वती ने कहा इस स्थान पर स्त्री का प्रभाव रहेगा, जो भी यँहा आयेगा स्त्री बन जायेगा।
राजा इल का उस स्थान पर पहुँचना होनी का खेल था।
वे वँहा जाते ही स्त्री बन गए। पार्वती से प्रार्थना करने पर पार्वती ने उन्हें दोबारा पुरूष बना दिया।
राजा इल को छह महीने तक स्त्री के रूप में बिताना पड़ा।
जँहा उनका न इला पड़ा।
बुध का मन इला पर आ गया और इला और बुध के मिलन से पुरुरवा का जन्म हुआ।
महाराज पुरु भी अपने पिता के समान ही वीर थे। इंद्र आदि देवता तक उनसे सहायता माँगने आते थे।
एक बार महाराज पुरु इंद्र की सभा में बैठे गीत संगीत, नृत्य का आनंद ले रहे थे कि उनका दिल उर्वशी नाम की अप्सरा पर आ गया।
वे उस पर मोहित हो गये और उन्होंने उर्वशी अप्सरा को अपने साथ पृथ्वी पर चलने का प्रस्ताव दिया।
यह सब सुनकर इंद्र भी चकरा गये। स्वर्ग की अप्सरा और पृथ्वी पर!!
परंतु राजा पुरु के प्रस्ताव को ना करने की हिम्मत इंद्र सहित किसी भी देवता में नहीं थी।
अतः सभी ने हामी भर दी। किसी देवता का साहस नहीं हुआ कि मना कर दें।

उर्वशी अप्सरा का भी हाल-बेहाल था। कँहा स्वर्ग के भोग ओर कँहा पृथ्वी के सुख-दुःख।
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इसी कश्मकश में आखिर वह राजा पुरु के साथ पृथ्वी पर चलने को तैयार हो गई।
उर्वशी अप्सरा ने राजा पुरु से तीन शर्ते रखीं। पहली शर्त यह कि वह हमेशा घी पीयेगी।
दूसरी शर्त यह कि वह अपने साथ दो भेड़ें रखेगी, जो उससे कभी अलग नही होंगी।
तीसरी शर्त यह कि वह अपने बिस्तर के अलावा राजा पुरु की कँही भी नंगा नहीं देखेगी।
पुरु ने ये मामूली सी शर्ते मान ली।
उर्वशी अप्सरा को पाने के लिये वह कुछ भी करने को तैयार था।
उस समय उसे सब शर्तें मंजूर थी।
इधर उर्वशी अप्सरा ने भी स्पष्ट कर दिया कि इनमें से एक भी शर्त टूट गयी तो वह वापिस स्वर्ग चली जायेगी।
खैर वे दोनों स्वर्ग से पृथ्वी पर आ गये। दोनों का जीवन सुखमय कटने लगा।
राज्य की सारी प्रजा इस अद्भुत संयोग से आनंद में थी।
इसी प्रेम वार्तालाप में चार वर्ष बीत गये। किन्तु दूसरी ओर इंद्रलोक में उदासी का वातावरण था।
देवलोक में एक अजीब सा सन्नाटा था, जैसे कोई कीमती वस्तु छिन गई हो।
सारी सभाऐं रंगहीन, रसहीन हो चली थीं।
उर्वशी अप्सरा के न रहने से मानो सभी तेजहीन हो कर रह गये थे।
इंद्रलोक में सभी के मन में रह-रह कर एक ही बात उठती थी कि पृथ्वी से उर्वशी अप्सरा को स्वर्ग में वापिस लायें तो कैसे?
उधर पृथ्वी पर उर्वशी को किसी प्रकार की कमी न थी।
राजा पुरु ने अपने सच्चे प्रेम से उसे वश में कर रखा था।
असल में स्वर्ग में देवताओं को उर्वशी अप्सरा की भारी कमी खल रही थी।
क्योंकि कई अवसरों पर अपने इस अचूक अस्त्र का प्रयोग अपने शत्रुओं पर भी करते थे।
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जीत के लिये छल के रूप में उपयोग होता था।
अतः इंद्र आदि सभी देवताओं ने मिलकर उर्वशी की शर्तों को भंग करने का उपाय सोचा और एक दिन जब राजा पुरु रात को उर्वशी अप्सरा के साथ सो रहे थे,
गन्धर्वों ने उनके पलंग से बंधी एक भेड़ को उठा लिया, किन्तु राजा पुरु आराम से लेटे रहे।
तभी गन्धर्वों ने दूसरी भेड़ भी चुरा ली।
इस बीच शोर सुनकर उर्वशी अप्सरा की नींद खुल गयी और उसने उसी क्षण राजा को अपनी भेड़ें वापिस लाने को कहा।
अपनी प्रिय पत्नी की पीड़ा देख कर राजा पुरु को भी क्रोध आ गया।
रात का समय था वह जैसे नग्न अवस्था में लेटे थे वैसे ही उठ कर दौड़े और अपने पराक्रम से भेड़ों को वापिस ले आये।

किन्तु देवताओं का रचा खेल अब शुरू होता है, जैसे ही राजा पुरु भेड़ों को ले कर उर्वशी अप्सरा के पास आते हैं,
देवता चालाकी से छल द्वारा बिजली चमका कर उजाला कर देते हैं।
उस बिजली की चमक के उजाले में उर्वशी अप्सरा को राजा का नंगा बदन दीख जाता है और शर्त भंग हो जाती है।
देवताओं की चाल काम कर जाती है और उर्वशी राजा पुरु को वैसे ही छोड़ कर आकाशमार्ग से सीधे स्वर्ग को चली जाती है।

अब राजा पुरु विरह की अग्नि में जल जाते हैं। उनका जीवन रसहीन हो जाता है।
जंगल.पहाड़ आदि में भटकते रहते हैं।
एक दिन मानसरोवर में उन्होंने देखा कि उर्वशी अप्सरा हँसनि का रूप रख कर अपनी सहेलियों के साथ सरोवर में आनंद कर रही है।
राजा पुरु ने उसे तुरंत पहचान लिया और उससे निवेदन किया कि सब कुछ भूलकर वह वापिस चले।
किन्तु उर्वशी अप्सरा ने उन्हें शर्त याद दिलाई, और कि अब मैं मजबूर हूँ,
मृत्यु के बाद आपका स्वर्गलोक में आना निश्चित है अतः वँहा मिलन संभव है।
यँहा पृथ्वी पर मेरे आपके मिलन का समय समाप्त हो गया है। अतः दुःखी न हो कर आनंद से रहें।

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